उत्तराखण्ड का इतिहास (History Of Uttarakhand)- परमार वंश

उत्तराखण्ड का इतिहास – परमार वंश

परमार वंश Parmar vansh

परमार वंश (पंवार) / Parmaar Vansh

परमार वंश (Parmaar Vansh) का संस्थापक कनकपाल को माना जाता है। इस तथ्य की पुष्टि श्री बैकेट द्वारा प्रस्तुत पंवार वंशावली एवं सभासार नामक ग्रन्थ से होती है। इसके अतिरिक्त परमार वंशावली कैप्टन हार्डविक, विलियम एवं एटकिन्सन महोदय ने भी दी है।

एटकिन्सन ने अल्मोड़ा के किसी पण्डित के संग्रह से अपनी सूची ली है। इनमें श्री बैकेट की सूची सर्वाधिक प्रमाणिक प्रतीत होती है क्योंकि यह सुर्दशनशाह कृत ग्रन्थ “सभासार” (1828 ई0) से पूर्णतः मेल खाती है।

कनकपाल – 

कनकपाल को परमार (पंवार) वंश का संस्थापक माना जाता हैं कनकपाल मूलतः कहाँ का रहने वाला था इस विषय में इतिहासविदों के मध्य मतभेद है।

पण्डित हरिकृष्ण रतुड़ी का मानना है कि कनकपाल धारा नगरी से आये थे। एटकिन्सन महोदय ने रतुड़ी के मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि धारानगरी के पंवार / परमार वंश का एक युवक इस पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा को आया था। मार्ग में सोनपाल नाम के राजा का राज्य पड़ता था जिससे वह युवक मिलने जा पहुँचा। सोनपाल उस युवक से इतना प्रभावित हुआ कि अपनी कन्या का विवाह उस युवक से करवा दिया और दहेज में चाँदपुर परगना प्रदान किया। वॉल्टन भी एटकिन्सन के मत का ही सर्मथन करते हैं।

डॉ. पातीराम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “सम्वत् 756 में तत्कालीन राजवंश के कनकपाल मालवा से गढ़वाल आये। वे चन्दवंश के थे। इस पर्वतीय क्षेत्र में प्रचलित पुरातन नियम के अनुसार गढ़वाल के शासक सोनपाल ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया एवं अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। सोनपाल केबाद कनकपाल सिहासनारूढ़ हुआ। सोनपाल गढ़राज्य की गढ़ियों में से किसी एक के गढ़पति होगें ।”

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उपरोक्त मत पूर्णतः सत्य नहीं माने जा सकते है क्योंकि विद्वानों ने अपने मत के पक्ष में ठोस प्रमाण नहीं दिये। सम्भवतः इन लोगों ने कुछ साहित्यिक पंक्तियों के आधार पर ही अपना मत प्रस्तुत कर दिया।

जबकि चाँदपुर गढ़ी से प्राप्त एक शिलालेख पर अंकित लेख से प्रतीत होता है कि कनकपाल गुर्जर प्रदेश के किसी क्षेत्र से गढ़वाल आये थे। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण प्रमाण भी यह प्रमाणित करता है कि गढ़वाल के पंवार वंश के आदि पुरूष मेवाड़, गुजरात, महाराष्ट्र से होकर गढ़वाल आये थे जिसे गुर्जर प्रदेश कहा जाता है।

इसका प्रमाण है परमार वंश के नरेशों के काल में बनी गणेश भगवान की मूर्ति अथवा चित्र है जिसमें उनकी सुंड दाहिनी ओर मुड़ी है। उदाहरणार्थ जोशीमठ से प्राप्त गणेश की नृत्यरत मूर्ति टिहरी के पुराना दरबार के राजप्रसाद के द्वार पर बनी काष्ठ की गणेश मूर्ति। गणेश की पूंड दाहिनी ओर मोड़ने की परम्परा पुरातन समय से गुजरात, राजस्थान एवं महाराष्ट्र में चली आ रही है जबकि उतर भारत में गणेश की पूंड बांयी ओर मुड़ी होती है।

गुर्जर प्रदेश से कनकपाल के आने का एक अन्य प्रमाण ‘आदिबद्री’ मन्दिर भी है जिसकी रचना गुजरात एवं राजस्थान के सोलंकी मन्दिर निर्माण शैली से मिलती है। इसके अतिरिक्त एक विशेष तथ्य यह भी है कि गढ़वाल एवं कुमाऊँ की अनेक राजपूत जातियाँ अपना मूल स्थान गुर्जर प्रदेश को ही बताती है। रूद्रसिंह तोमर एवं बालकृष्ण शास्त्री बताते है कि कनकपाल के साथ गोर्खा रावत, बत्र्वाल, रौतेला तथा बाग्ली नेगी भी गढ़वाल आए थे।

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डॉ. शूरबीर सिंह के संग्रह के रखे कुछ ऐसे पत्र है जो भी कनकपाल के धारानगरी से आने के भ्रम को मिटा देते है। उदाहरणार्थ सन् 1927 दीवान चक्रधर जुयाल 23 मई पत्रांक 560/सी, भेजने की तिथि 13 जून 1927, इण्डोर्स-मेंण्ट न0 1839502-27 को धारा दरबार भेजा था जिसका प्रति उत्तर दिनांक 10 दिसम्बर 1927 को पत्र सं0 1004 धार के इतिहास अधिकारी ने पत्र सं0 17 दिनांक 22 जुलाई 1927 को टिहरी भेजा था जिसमें स्पष्ट शब्दों में पुष्टि की गई थी कि कनकपाल का धारानगरी के राजवंश से कोई सम्बन्ध नहीं था।

इस प्रकार कनकपाल को गुर्जर प्रदेश से आने की बात सर्वाधिक प्रमाणिक प्रतीत होती हैं। श्री कन्हैयालाल कणिकलाल मुंशी रचित “दि ग्लोरी दैट वाज गूजर देश में राजस्थान, महाराष्ट्र, मालवा एवं गुजरात के सम्मिलित क्षेत्र को गुर्जर प्रदेश कहा है।

वर्णनिर्धारण –

गढ़वाल में पंवार / परमार वंश के संस्थापक कनकपाल का सम्बन्ध परमार वंश से ही था या नहीं, इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम साक्ष्य परमार वंश के नरेश सुदर्शनशाह द्वारा रचित ग्रन्थ ” सभासार” की यह पंक्ति है कि “मानी पंवार / परमार  कुछ वंश की देत जो पुश्त बदरी वंशत से स्पष्ट होता है कि कनकपाल परमार वंश के ही थे। | गढराज्य में भाटों रचित गीत ‘पवाड़ा’ या “पैवाड़ा” कहलाते है। श्याम परमार ने अपनी रचना ‘भारतीय लोक साहित्य में लिखा है कि परमार वंश के लोग चाहे बिहार में बसे हों या भारत के किसी अन्य भाग में उन लोगो में ‘पैवड़ा’ शब्द अत्यधिक प्रचलित है।

बृज व भोजपुरी भाषा में ‘पवाड़ा’ मध्य प्रदेश एवं उतर प्रदेश में ‘पंवारा’ तथा महाराष्ट्र में ‘पवाड़े’ या पंवाड़’ बहुत प्रयोग होता है। डॉ0 सत्येन्द्र लिखते है कि इन गीतों से पहले पंवार क्षत्रियों की गाथायें गाई जाती होगी, फलतः परमारों के गीत होने के कारण ये ‘पमारे’ कहलाए ।

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अतः गढ़वाल क्षेत्र में ‘पंवाड़’ शब्द परमारों ने ही प्रचलित किया होगा। गढ़वाल की कतिपय वीरगाथाएँ (पंवाडे) जैसे कफ्फूचौहान पंवाड़ा, विजयपाल पवाड़ा, जीतु–बगड़वाल पंवाड़ा, रिखोला लोदी, तीलू रौतेली एवं माधोसिंह पवाड़ा अत्यधिक लोकप्रिय है।

भक्तदर्शन ने अपनी पुस्तक” गढ़वाल की दिवंगत विभूतियों में गढ़वाल नरेशों को परमार वंश (Parmar Vansh) का ही माना है। राजपूतों की उत्पति सम्बन्धी पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार अग्निकुण्ड से चार राजपूत कुलों का उद्भव हुआ – परमार, प्रतिहार, चौहान तथा चालुक्य और यहीं पर आबू पर्वत की तलहटी में चन्द्रपुरी नाम का नगर था। अतः गढ़वाल आकर कनकपाल ने चन्द्रपुरी की सुखद स्मृतियों को सजीव रखने के लिए अपने गढ़ का नाम “चाँदपुरगढी’ रखा होगा।

इसके अतिरिक्त मॉउण्टआबू और गढ़वाल में अन्य समानताएँ भी पाई जाती हैं। उदाहरणार्थ उत्तरकाशी जिले का गोमुख और आबू पर्वत के गोमुख की बनावट एक सी है। आबू के पास एक स्थल ‘कोटेश्वर’ है तो पुरानी टिहरी के निकट भी इसी नाम का स्थल है जहाँ वर्तमान में कोटेश्वर विद्युत परियोजना निर्माणाधीन है।

आबू पर्वत पर एक पवित्र कुण्ड “मन्दाकिनी’ है। जिसे शान्तमूर्ति मुनिराज की पुस्तक “आबू में परमार नरेश द्वारा निर्मित बताया गया है। इसी नाम की नदी चमोली जिले में गंगा की सहायक नदी है। अतः गढ़वाल एवं आबू क्षेत्र में प्रचलित समान नामावली भी इस ओर संकेत करती है कि परमारों का इन दोनो स्थलों से गहरा सम्बन्ध था।

प्रारम्भिक जीवन –

पंवार वंश के सस्थापक राजा कनकपाल का मूल निवास गुर्जर प्रदेश था। यह उपरोक्त वर्णन से सिद्ध होता है। उनके सिंहासनरूढ़ होने की तिथि पर भी मतैक्य नहीं है। उनके सिंहासन पर बैठने की तिथि के सम्बन्ध में प्रचलित मत इस प्रकार हैं

पंडित हरिकृष्ण रतुड़ी ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल के इतिहास में एक स्थान पर कनकपाल के 888 ई0 में गद्दी पर बैठने का वर्णन किया है जबकि अपनी दूसरी रचना ” गढ़वाल वर्णन” में अपने मत का खण्डन करते हुए उन्होंने उसके सिंहासनरूढ होने की तिथि सम्वत् 745 (688 ई0) बताई है।

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भक्त दर्शन ने राजा कनकपाल के सिंहासनारूढ़ होने की तिथि 888 ई0 ही बताई है।डॉ0 शिवप्रसाद डबराल ने कोई निश्चित तिथि नहीं लिखी है उन्होंने अलग-अलग विद्वानों के मतों का उल्लेख किया हैं। चाँदपुरगढी दुर्ग निर्माण उनके अनुसार सन् 1425 से 1500 ई0 के मध्य हुआ जिस आधार पर राजा कनकपाल के सिंहासनरूढ़ होने की तिथि 15वीं शताब्दी के आरम्भ बैठती है।

राहुल सांकृत्यायन ने तो राजा कनकपाल के राजा होने पर भी संदेह व्यक्त किया है। वे तो अजयपाल को (1500 ई0) पंवार/ परमार वंश का संस्थापक मानते हैं।श्री बैकट ने अपनी सूची में सम्वत् 756 में राजा कनकपाल के 11 वर्ष के शासन का अन्त माना है। अर्थात् राजा कनकपाल उनके अनुसार सम्वत् 754 (756-11) में गद्दी पर बैठे थे। यह तिथि ईसवी सन् 688 बैठती है।

बालकृष्ण शान्ती भट्ट ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल जाति प्रकाश में जो पक्तियाँ प्रस्तुत की हैं उनके अनुसार राजा कनकपाल सम्वत् 745 (अर्थात् 688 ई0) में गढ़वाल आए और राजा बने।

इसके अतिरिक्त शूरबीर सिंह के ऐतिहासिक संग्रह में कवि देवराज की लिखी गढ़वाल राजा वंशावली’ की हस्तलिखित पाण्डुलिपि रखी हैं जिसमें स्पष्टतः राजा कनकपाल के गढ़वाल आने और सिहांसनरूढ़ होने की तिथि 745 सम्वत् अर्थात 688 ई० लिखी

अतः उपरोक्त विवरण से राजा कनकपाल के गढ़वाल क्षेत्र में आने और राजा बनने की सर्वाधिक प्रमाणित तिथि सम्वत् 745 (688 0) ही प्रतीत होती है।

राजा अजयपाल –

अजयपाल श्री बैकेट की पंवार/ परमार वंशावली के अनुसार परमार वंश का 27वाँ राजा था। इससे पूर्व के पंवार राजाओं की जानकारी के ऐतिहासिक स्त्रोत उपलब्ध न होने कारण इस बीच के इतिहास का प्रमाणिक ज्ञान न के बराबर है। इसे पंवार / परमार राजवंश के इतिहास का “अंधकार युग’ की संज्ञा दी जा सकती है। राजा अजयपाल के शासनकाल में पंवार राजाओं ने पहली बार अपनी राजधानी परिवर्तन की और श्रीनगर (गढ़वाल) को चाँदपुर-गढ़ी के स्थान पर नवीन राजधानी बनाया।

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इसके अतिरिक्त राजा अजयपाल को गढ़वाल क्षेत्र की 52गढ़ियों (ठकुराईयों)को विजित कर एक विशाल गढ़राज्य की स्थापना का श्रेय दिया जाता है जिसे ” गढवाल राज्य के नाम से जाना जाता है। यद्यपि गढ़वाल क्षेत्र में गढ़ियों की संख्या को लेकर मतभेद हैं। इतिहासकारों के अनुसार –

कनकपाल ने 12 गढ़ों को अधीन किया था।

हरिकृष्ण रतुड़ी के अनुसार इन बावन गढ़ों में ठाकुरी राज्य था। अतः इन्हें ठकुराईयाँ कहा जाता रहा होगा। हरिकृष्ण रतुड़ी ने प्रारम्भ में 64 परगनों के आधार पर 64 गढों का अनुमान किया।

डॉ. यशवन्त कटौच चाँदपुरगढ़ी से प्राप्त सूची के आधार पर 24 गढ़ों का उल्लेख लेख में करते हैं।

वाचस्पति गैरोला अजयपाल से पहले से ही गढ़वाल को 52 गाड़ियों में विभक्त मानते है।

गढ़वाल क्षेत्र में प्रचलित जागर गाथाओं में भी 52 नरसिंगों की गढ़ो में नियुक्ति का प्रसंग आता है जिससे भी 52 गढ होने की पुष्टि होती है।

डॉo शिवानन्द नौन्त्यिाल जागरों में आये इन 52 वीरों के नामों को 52 गढ़ों का नाम मानते हैं। कुछ विद्वानों ने शिवबावनीको गढ़वाली माना है ।

नरसिंह देव के शासनकाल में शासन व्यवस्था में 52 नरसिंहों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। अतः ये 52 स्थान इन वीरों के नाम से प्रचिलित हो गए। इनके साथ ही 85 भैरव भी जागर में आते हैं। सम्भवतः ये भैरव 85 भिन्न-भिन्न स्थानों (उपगढ़ों) में नरसिंगों के अधीन गिरद्वार–घाटों की रक्षा के लिए नियुक्त थे।

1050 ई0 के आस-पास नरसिंह देव के द्वारा 52 नरसिंगो की नियुक्ति की गई मानी जाती है। रायबहादुर पातीराम ने समस्त गढ़ों को जीतने वाले राजा अजयपाल को ‘गढपाल’ कहकर सम्बोधित किया। अभिलेखीय साक्ष्यों में हमें रानी कर्णावती के काल का ताम्रपत्र जिस पर सम्वत् 1640 अंकित हैं और यह हाट गांव से प्राप्त हुआ है। इस ताम्रपत्र में सर्वप्रथम “गढ़वाल सन्तान’ उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त बद्रीदत्त पांडे के अनुसार दीपचन्द के ताम्रपत्र (1600 ई0) में भी गढ़वाल के राजा प्रतीपशाह का उल्लेख हुआ है। अतः इससे स्पष्ट होता है “गढवाल” शब्द 15वीं शताब्दी के बाद ही प्रयोग होने लगा।

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कौटिल्य द्वारा वर्णित तीन प्रकार के दुर्ग यथा जलदुर्ग, मरूस्थलीय दुर्ग और पर्वत दुर्ग में वर्णित पर्वत दुर्ग के समान ही उत्तराखण्ड के गढ़ थे। इन पर कठिनाई से चढ़ा जा सकता था और इनसे निकलने के लिए एक गुप्त सुरंग होती थी। जौनसार-भावर क्षेत्र में इन दुर्गों को ‘टिम्बा’ कहा जाता है। अग्निपुराण में वर्णन है कि गढ़ दुर्गों में गढपति अपने परिवार और विश्वासपात्रों के साथ रहकर आस-पास की उपत्यका पर शासन करता था। गढ़ ही उसका पुर होता था जहाँ घाट, मन्दिर इत्यादि सभी होता था।

गढ़ के अतिरिक्त कोट, बूंगा, थुम्बा, मौड़ा आदि भी गढ़ के छोटे रूप अथवा गढ़ से छोटी ईकाइयाँ होती थी। मुस्लिम काल के लेखको ने इन कोटों की अधिसंख्य के कारण ही गढ़वाल के प्रवेश द्वारों को कोटद्वार, हरिद्वार नाम दिया। गढ़ के भीतर घेराबन्दी के समय के लिए पर्याप्त भोजन व्यवस्था रखी जाती थी तथा पानी के लिए पहाड़ी के शीर्ष से जल स्त्रोत तक गुप्त सुरंग बनाई जाती थी। चाँदपुरगढ़ी, खैरागढ़, उप्पूगढ़ गुजडुगढी,भैरवगढी इत्यादि में सुरंग अब भी दृष्टव्य है। इन गढ़ो पर जगह-जगह खाई काटी जाती थी।

जहाँ शत्रु पर वार करने के लिए बड़े-बड़े पत्थर एकत्रित रखे जाते थे। इसी कारण महाभारत में पहाड़ी लोगों को पाषाणयोधीन तथा अश्मकयुद्ध विशारद कहा गया है। सम्भवतः मुहमद बिन तुगलक के कराचल अभियान जिसकी साम्यता कुछ विद्वान गढ़वाल राज्य से करते हैं। इसमें तुगलक की एक लाख सैनिक बिना युद्ध किये इन्ही पाषाण योद्धाओं के द्वारा मारी गयी। इनके अनुसार केवल तीन अफसर जीवित दिल्ली पहुंचे।अतः इन गढ़ों के मान्य संख्या कुछ भी हो परन्तु इनकी बहुलता के कारण ही यह क्षेत्र गढ़वाल कहलाया। यद्यपि वर्तमान समय में सभी गढ़ी नष्टप्रायः है। इन गाड़ियों के अवशेष ही यत्र-तत्र बिखरे पड़े मिलते हैं ?

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अजयपाल पंवार / परमार वंश का महानतम शासक था। कवि भरत कृत ‘मानोदय’ (ज्ञानोदय) में उसकी तुलना कृष्णा, कुबेर, युधिष्ठर, भीम एवं इन्द्र से की गई है। वर्तमान श्रीनगर गढ़वाल से आठ या नौ किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी-सी पहाड़ी पर बसा देवलगढ़ अजयपाल की राजधानी थी। यहाँ उसने एक राजप्रसाद एवं अपनी कुलदेवी ‘राज-राजेश्वरी’ का मन्दिर बनवाया। सम्भवतः यह स्थल गोरखपंथी संत ” सतनाथ” का आश्रम भी था। राजा अजयपाल इस पंथ का अनुयायी था क्योंकि उसे गोरखपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी भृतहरि एवं गोपीचन्द्र की श्रेणी में रखा जाता है।

जार्ज डब्लू व्रिग्स ने तो अजयपाल को गोरखनाथ सम्प्रदाय के एक पंथ का संस्थापक भी माना है। “नवनाथ कथातथा “गोरक्षा स्तवांजलिग्रन्थ में तो अजयपाल को गोरखपंथी सम्प्रदाय के 84 सिद्धों में से एक सिद्ध माना है।

प्रो0 अजय सिंह रावत ने अजयपाल की तुलना महान मौर्य सम्राट अशोक से की है। उनके अनुसार जिस प्रकार कंलिग युद्ध (261बी.सी) के भीषण नरसंहार से क्षुब्द होकर अशोक ने ” भेरीघोष” को त्यागकर ‘धम्मघोष- को अपना लक्ष्य निर्धारित किया था। उसी प्रकार अजयपाल ने गढ़वाल क्षेत्र की सभी 52 गढ़ियों को जीतने के बाद सदैव के लिए ऐश्वर्य को त्यागकर गुरूपन्थ को अपना लिया।

दूसरे शब्दों में अजयपाल ने भी सम्राट अशोक की ही भाँति गढ़राज में अपनी सार्वभौमिकता स्थापित करने के बाद अपना सम्पूर्ण जीवन गोरखपंथी सम्प्रदाय के विकास पर लगा दिया था। शूरवीर सिंह के संग्रह में रखी तांत्रिक विधा की पुस्तक ‘सांवरी ग्रन्थ’ की हस्तलिखित प्रति में अजयपाल को ‘आदिनाथ’ कहकर सम्बोधित किया गया है। यह अजयपाल के गोरखपंथ में उच्च स्थान का द्योतक है। देवलगढ़ के विष्णु मन्दिर के दाहिनी ओर ठीक सामने की दीवार पर अजयपाल को पदमासन मुद्रा में चित्रित किया गया है। इस चित्र में उनके कानों में कुण्डल एवं सिर पर पगड़ी है।

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सहजपाल –

अजयपाल के पश्चात् कृमशः कल्याणशाह, सुन्दरपाल, हसदेवपाल, विजयपाल गद्दी पर बैठे। इन सभी के शासनकाल की जानकारी पूर्णतः अप्रर्याप्त है। तत्पश्चात 42वें शासक के रूप में सहजपाल पंवार नरेश बने। इनके शासनकाल की जानकारी के मुख्य स्त्रोत प्राप्य हैं।

देवप्रयाग में क्षेत्रफल के मन्दिर के द्वार पर उत्कीर्ण विकमी सम्वत् 1065 अर्थात 1548 ई के एक शिलालेख के आधार पर हरिकृष्ण रतुड़ी निष्कर्ष निकालते हैं कि सहजपाल ने गढ़राज्य पर लगभग सन् 1548 ई0 से 1575 तक शासन किया। कवि भरत ने सहजपाल की प्रशस्ति में अनेक पक्तियाँ लिखी हैं। उनका मानना है। कि सहजपाल के शासनकाल में गढ़वाल (गढ़वाल) अपने विकास के चरमतम बिन्दु पर था।

माना जाता है कि सहजपाल मुगल सम्राट अकबर का समकालीन था और अकबर के साम्राज्य की सीमाएँ लगभग समस्त उत्तर भारत में फैल चुकी थी किन्तु तब भी गढ़राज्य सहजपाल के अधीन पूर्ण स्वतन्त्रता का आनन्द ले रहा था। आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार मुगलिया सल्तनत का अपनी समकालीन शक्तियों से जो सम्बन्ध थे उनमें गढ़वाल राज्य का महत्वपूर्ण स्थान था। यद्यपि श्रीनगर गढ़वाल का दिल्ली से कूटनीतिज्ञ सम्बन्ध था किन्तु प्रतीत होता है कि यह राज्य पूर्णतः स्वतंत्र था।

बलभद्रशाह ( 1575–1591 0) –

राजा सहजपाल के पश्चात गढ़वाल का सिहांसन बलभद्रशाह को प्राप्त हुआ। इनसे पूर्व ‘शाह’ उपाधि कल्याण शाह के नाम के साथ लगा मिलता है। लेकिन प्रतीत होता है कि “शाह उपाधि लगाने की परम्परा का प्रचलन राजा बलभद्र ने प्रारम्भ की। ‘शाह’ की इस उपाधि के पीछे भक्तदर्शन ने अपना तर्क प्रस्तुत किया है कि भारतीय इतिहास का अभागा शहजादा अपने अनुज औरंगजेब से परास्त हुआ तो उसने श्रीनगर गढ़वाल में शरण ली किन्तु श्रीनगर के शासक ने उसे औरंगजेब को सौंप दिया। इस सेवा से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने गढ़वाल नरेश को ” शाह” की उपाधि दी।

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यद्यपि इस धारणा की सच्चाई संदिग्ध है क्योंकि औरंगजेब के मुगल सम्राट बनने और कल्याणशाह एवं बलभद्रशाह के शासनकाल के मध्य लगभग 100 वर्षों का अन्तर है। इस संदर्भ में पातीराम का मत है कि गढ़वाल क्षेत्र के तल्ला नागपुर क्षेत्र के ग्राम सतेरा का बल जाति का व्यक्ति राज्यकार्य से जब दिल्ली गया तो उसने मुगल हरम की अत्यंत रूग्ण महिला जिसका अनेकों उपचार के बाद अन्त समय निकट लग रहा था, को एक धागा बाँधकर उसके रोग का पता लगाया और उसे ठीक करने में सफलता प्राप्त की। मुगल शंहशाह से उसने ही पारितोषिक में अपने राजा के लिए ‘शाह’ की उपाधि प्राप्त की थी।

इस बात में तो सत्यता है कि गढ़वाल के ग्रामीण क्षेत्रो में आज भी पीलिया (जॉडिस) का ईलाज कलाई अथवा गले में माला (धागा) बाँधकर सफलतापूर्वक होता है लेकिन पारितोषिक में किसी अन्य के द्वारा प्राप्त उपाधि का प्रयोग उपर्युक्त नहीं प्रतीत होता है। ऐसा भी माना जाता है कि दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने बलभद्रपाल को शाह की उपाधि दी। सम्भवतः बलभद्र ने गढराज्य की शक्ति का पुर्नउत्थान किया जिसके कारण उसने शाह की उपाधि धारण की।

वॉल्टन महोदय के अनुसार बलभद्रशाह ने 1518 ई में कुमाऊँ के शासक से ग्वालदम नामक स्थान पर युद्ध किया। डा0 उबराल इस युद्ध की तिथि 1590-91 ई0 के मध्य मानते हैं। युद्ध की तिथि स्पष्ट नहीं परन्तु यह स्पष्ट है कि गढ़वाल नरेश ने 1518-91 ई0 के मध्य ही कुमाऊँ पर आक्रमण किया। अतः इस आधार पर बलभद्रशाह के शासनकाल की सम्भावित तिथि 1575-91 ई0 ठहरती है।

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मानशाह –

डॉ शिवप्रसाद डबराल के अनुसार बलभद्र-शाह के बाद सन् 1591 में मानशाह ने गद्दी संभाली। मानशाह से सम्बन्धित साक्ष्य उपलब्ध है। देवप्रयाग के क्षेत्रफल मन्दिर के द्वार पर 1608 का अंतिम शिलालेख एवं इसी स्थल के रघुनाथ मन्दिर से प्राप्त शिलालेख (1610 ई0) मानशाह द्वारा उत्कीर्ण माने जाते हैं। इनके आधार पर फोस्टर महोदय की कृति ‘दि अर्ली ट्रेवल्स इन इंडिया में विलियम नामक यूरोपीय यात्री का वृतांत है जिसने गढ़वाल नरेश मानशाह का उल्लेख किया है।

इसके अनुसार गढ़वाल राज्य गंगा एवं यमुना के मध्य फैला है और राजधानी ‘श्रीनगर’ है | इस राज्य की सीमा आगरा से 200 किलोमीटर दूर है। इस पूरे राज्य की लम्बाई 300 किमी और चौड़ाई 150 किमी0 है। यहाँ के शौर्यवान शासक सोने के बर्तनों में भोजन करते है। इसके आधार पर मानशाह का राज्यकाल 1591 से 1611 ई0 के मध्य बैठता है।

मानशाह के शासनकाल में कुमाऊँ के शासक लक्ष्मीचंद ने 1597-1620 ई0 के मध्य 7 आक्रमण किए किन्तु हर बार उसे पराजय का सामना करना पड़ा। बद्रीदत्त पांडे के अनुसार मानशाह के सेनापति नन्दी’ ने तो चंद राजाओं की राजधानी पर भी अधिकार कर लिया था। राहुल सांकृत्यायन का कथन भी इस मत का सर्मथन करता है कि गढ़राज्य के सेनापति ‘नंदी’ ने चम्पावत हस्तगत कर लिया था। गढ़वाल के राजकवि भरत ने अपनी कृति ‘मानोदय’ में इस विजय का विरूद्ध गया है।

श्यामशाह –

परमार वंशी 44वें शासक का नाम ‘जहांगीरनामा’ में उल्लिखित है जिसके अनुसार मुगल दरबार ने श्रीनगर के शासक को घोड़े तथा हाथी उपहार स्वरूप भेंट किए। श्यामशाह के ‘सिलासरी’ नामक ग्राम की भूमि का एक हिस्सा शिवनाथ नामक योगी को देने का सन् 1615 ई0 का ताम्रपत्र प्राप्य है एवं जहांगीर ने जो उपहार भेजे थे वे बैसाख विकमी 1678 अर्थात् अप्रैल 1621ई0 के हैं। इस आधार पर डॉ0 डबराल ने श्यामशाह का राज्यकाल 1611-30ई0 के मध्य माना है।

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महीपतशाह –

श्यामशाह निःसन्तान थे अतः उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके चाचा महीपतशाह गद्दी पर बैठे। महीपतशाह का अधिकांश जीवन युद्ध में व्यतीत हुआ। अपने शत्रुओं को निरन्तर पराजित करने के कारण इन्हें ‘गर्वभंजन’ के नाम से प्रसिद्धि मिली। सी0 वैसल्स कृत ‘अर्ली जैसूइट ट्रेवल्स इन सैन्ट्रल एशिया में प्रकाशित एनड्राडे महोदय के विवरण में महीपतशाह के तिब्बत अभियान का विस्तृत वर्णन है।

इस विवरण में श्रीनगर के शासक महीपतशाह के तिब्बत पर तीन आक्रमणों का उल्लेख मिलता हैं। प्रथम अभियान में 11000 बन्दूककधारी तथा बीस छोटी-छोटी तोप वाली टुकड़ियाँ थी। द्वितीय अभियान के सैनिको की संख्या 20000 थी जबकि तृतीय अभियान में अपेक्षाकृत कम सैनिक थे। प्राकृतिक परिस्थियाँ गढ़नरेश के प्रतिकूल थी साथ ही भारी हिमपात से मार्ग अवरुद्ध होने एवं तिब्बतवासियों के कठोर प्रतिरोध के कारण गढनरेश को असफलता का सामना करना पड़ा फलतः दोनों राज्यों के मध्य सन्धि सम्पन्न हुई।

1624 ई0 में एनड़ाडे महोदय “माना स्थल को छोड़कर आगरा आ गया। इस विवरण से डॉ0 डबराल द्वारा निर्धारित पूर्व नरेश श्यामशाह के राज्यकाल की अवधि 1611-1630 ई0 गलत सिद्ध होती है। एनड्राडे के एक अन्य विवरण में जहांगीर द्वारा स्वयं एनड्राडे को फरमान जारी किये जाने के बाद भी गढ़नरेश द्वारा उसके साथ बुरा व्यवहार किया जाना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि जहांगीर काल में भी गढ़राज्य अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम किये हुए था। एनड्राडे 1625 ई0 पुनः गढ़वाल के रास्ते तिब्बत गया ओर इस बार भी उसे गढ़वाल में वही अत्याचार सहन करने पड़े।

हरिकृष्ण रतुड़ी ने महीपतशाह की ‘दापा’ (ढाबा) पर अद्वितीय सफलता का वर्णन करते हैं। डॉo डबराल के अनुसार महीपतशाह ने सिरमौर के डाकुओं के आतंक को समाप्त किया। महीपतशाह के राज्यकाल की तिथि पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ0 डबराल ने इसे 1631-1635 ई0 माना है तो राहुल ने 1625-1664 ई0 तक माना है।

Karak/कारक(Case) और उसके प्रकार

जहाँ तक उनके गद्दी पर बैठने की तिथि का सम्बन्ध है वह 1622 ई0 प्रमाणित है क्योकि इस वर्ष श्यामशाह की मृत्यु हुई और महीपत उनके उत्तराधिकारी बने किन्तु मृत्यु का वर्ष विवादित है। सी0 वैसल्स की पुस्तक में छपे अजेवेड़ो महोदय के यात्रावृतांत के अनुसार 28 जून 1631 ई0 को वह स्वयं आगरा से चला।

जुलाई 1631 में महीपतशाह की अंत्येष्टि के अवसर पर वह श्रीनगर में उपस्थित था। एनड्राडे के यात्रा वृतांत से तो महीपतशाह की अन्तिम तिथि 1631 ई0 ही सिद्ध होती है। एटकिन्सन के गजेटियर में उसने 1625 ई0 के केशवराय के मठ के एक शिलालेख का विवरण दिया है जिसमें महीपतशाह के शासन का वर्णन दिया है।

एक अन्य यूरापीय विद्वान मेकगैलन ने अपने संग्रह ‘दि जैसुइट एण्ड दि ग्रेट मुगल’ में एनड्राडे की यात्रा की पुष्टि की है। उसने भी एनड़ाडे के सहयात्री का नाम ‘मार्किवस ‘ दिया है। एनड्राडे की यात्रा का उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार–प्रसार था और इस कड़ी में उन्होंने 11 अप्रैल 1626 ई0 में ‘शापराँग’ नामक स्थल पर एक चर्च की स्थापना की।

महीपतशाह की शौर्यपूर्ण गाथाओं का वर्णन उसके तीन अद्वितीय सेनापतियों के उल्लेख के बगैर अधूरा रहेगा। माधोसिंह भण्डारी, रिखोला लोदी और बनवारीदास जिन्होंने महीपतशाह के भिन्न-भिन्न अभियानों में अपने अपरिमित शौर्य का परिचय दिया एवं गढ़राज्य की पताका लहराई।

पृथ्वीपतशाह –

इतिहासकारों का मत है कि पृथ्वीपतशाह 7 वर्ष की अल्पायु में गद्दी पर बैठा था। अतः महीपतशाह की रानी एवं पृथ्वीपत की। माँ रानी कर्णावती ने उसकी संरक्षिका के रूप में गढ़वाल की सत्ता की सम्भाली। वह गढ़वाल के इतिहास में ‘नाककटटी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध है। उनका सवंत् 1697 (1640 ई0) के ताम्रपत्र से जो हाट ग्राम निवासी एक हटवाल ब्राह्मण को भूमिदान के पट्टे पर देने का है। इसके अनुसार पृथ्वीशाह की माताश्री महाराणी कर्णावती द्वारा सन् 1640 ई0 में हाट के ब्राह्मण को भूमि दान दिया गया।

समास (Compound) व समास के भेद 

रानी कर्णावती का उल्लेख हस्तलिखित ‘साँवरी ग्रन्थ’ में भी आया है। डॉ0 डबराल ने रानी कर्णावती का साम्य ‘नाक कटी रानी’ नाम से किया है। ऐसा उन्होंने एक मुगल वृतांत के आधार पर किया है जिसके अनुसार मुगल सम्राट इस तथ्य से परिचित थे कि गढ़राज्य में एक स्त्री शासन कर रही है। ‘स्टोरियो डू मोगोर के लेखक के अनुसार शाहजहाँ के शासनकाल में मुगलों की एक लाख पदाति एवं तीस हजार घुडसवारों की सेना को गढराज्य पर आक्रमण के लिए भेजा गया।

इस आक्रमण में गढराज्य के वीरों ने रानी कर्णावती के निर्देशन में मुगल सेना को तहस-नहस कर दिया और जीवित पकड़े सैनिकों की नाक काट दी गई। ‘महासिरूल उमरा में भी गढ़राज्य के इस शौर्य का वर्णन है। इसके अनुसार इस आक्रमण का मुगल सेनापति ‘नजावत खॉ’ था जिसने दिल्ली जीवित पहुँचकर आत्महत्या कर ली। इससे भी बचे सैनिकों की नाक काटने की घटना की पुष्टि होती है।

मुगल शासक शायद इस अपमान को भुला नहीं पाये किन्तु यह रानी कर्णावती की योग्यता का ही प्रमाण है कि इस आक्रमण का बदला लेने के लिए भारत के सम्राट को 19 वर्ष इंतजार करना पड़ा। वर्ष 1655 ई0 में खल्लीतुल्ला के नेतृत्व में गढराज्य पर पुनः मुगल आक्रमण हुआ। पिछले आक्रमण में मुंह की खाने के कारण इस बार मुगल सेना ने सिरमौर राजा मान्धाता प्रकाश और कुमाऊँ के चन्द राजा बाजबहादुर की सहायता ली। फिर भी वे दून घाटी एवं कुछ किलों को ही विजित करने में सफल रहे। ‘ओरिएण्टल सीरीज’ के अनुसार राजधानी श्रीनगर अविजित ही रही। सम्भवतः इस बीच समझौता सम्पन्न हो गया क्योंकि गढ़ राजकुमार मेदनीशाह दिल्ली गए जहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया था।

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उत्तराधिकार युद्ध में औरंगजेब अन्ततः विजित हुआ। पराजित राजकुमार दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को शरण देने के कारण कालान्तर में मुगलों से गढ़राज्य सम्बन्ध तनावपूर्ण हुए। औरंगजेब ने पृथ्वीपत को पत्र द्वारा भगोड़े राजकुमार को दिल्ली को सौपने के लिए लिखा । पृथ्वीपतशाह ने मुगल चेतावनी को नजरअंदाज ही किया। फलतः ‘ट्रैवल्स इन इडिया के अनुसार मुगल आक्रमणों के द्वारा गढ़राज्य को भयभीत करने का प्रयास किया गया किन्तु गढ़वाल की सेना ने हर बार मुगल सेना को अपार क्षति पहुँचाई । अन्ततः औरंगजेब ने कूटनीति का सहारा लिया।

कानूनगों के अनुसार राजा जयसिंह ने श्रीनगर दरबार के अधिकारियों को प्रलोभन दिए । राजकुमार सुलेमान को विष देकर मरवाने का प्रयत्न किया। हर तरह से असफल होने पर उन्होंने पृथ्वीपत के पुत्र राजकुमार मेदिनी से अपने पिता के विरूद्ध षडयंत्र करवाया। पृथ्वीपत द्वारा अपने गद्दार सरदार का सरकलम करने के कारण अन्य सरदारों एवं राजपरिवार के सदस्यों में भय उत्पन्न हुआ फलतः मेदिनी के नेतृत्व में पृथ्वीपतशाह के विरूद्ध विद्रोह हो गया।

इस बीच राजा जयसिंह का पुत्र रामसिंह सुलह के लिए गढ़वाल आया किन्तु पृथ्वीपत ने पुनः राजकुमार सुलेमान की रक्षा का प्रण दोहराया। इस बीच षडयंत्र के डर से सुलेमान स्वयं ही भाग खड़ा हुआ जिसे गढ़वाल के सीमाप्रान्त के ग्रामीणों ने पकड़कर मेदनीशाह को सौप दिया। मेदनी सुलेमान को पकड़कर दिल्ली में ले गया, जिसकी 1662 ई0 में दिल्ली में मुत्यु हुई। इस घटना का उल्लेख औरंगजेब के पृथ्वीशाह को लिखे पत्र से होता है।

इसके अतिरिक्त के0पी0 श्रीवास्तव की पुस्तक ‘मुगल फरमान’ से भी होता है। इसी पुस्तक में 1665 ई0 का एक फरमान संग्रहीत है जिसमें औरंगजेब ने पृथ्वीपतशाह की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठने के लिए पृथ्वीपत के पौत्र फतेशाह को बधाई दी गई है। अतः राजकुमार मेदनीशाह को गद्दी पर बैठने अवसर ही नहीं मिला।

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फतेशाह –

पृथ्वीपतशाह की मृत्यु के बाद फतेशाह गढ़राज्य के शासक बने यद्यपि उनके सिहांसन पर बैठने की तिथि को लेकर मतैक्य नहीं है। हरिकृष्ण रतुड़ी और डॉ0 डबराल का मानना है कि वह 7 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा एवं उसके व्यस्क होने तक उसकी माता ने संरक्षिका के रूप में सिहांसन किया। परन्तु पृथ्वीपतशाह के द्वारा अपने जीवनकाल में ही सत्ता सौंप देने का साक्ष्य इस तथ्य की सत्यता पर संदेह पैदा करता है क्योंकि कोई भी राजा जीवित रहते हुए अल्पव्यस्क को गद्दी नहीं सौंप सकता ।

इसके अतिरिक्त फतेहशाह का शिवाजी की भाँति घोड़े पर बैठा एक चित्र जिसके नीचे फतेशाह की आयु 33 वर्ष लिखी है। सम्भवतः फतेशाह ने अपने गद्दीनशीन के उपलक्ष्य में बनवाया होगा।

राजा फतेशाह के शासन काल के सम्वत् 1757, 1767 के दो ताम्रपत्र शूरवीर सिंह के संग्रह में प्राप्य है। इसके अतिरिक्त उसका एक सिक्का भी मिला है। इस सिक्के के दोनो भाग पर चित्र अंकित होने के साथ-साथ अपनी भाषा में लेख अंकित है जो उसके काल में गढराज्य की स्वंतत्र सत्ता का प्रमाण भी है।

फतेशाह का राज्य विस्तार –

फतेशाह गढ़राज्य के इतिहास में अपने वीरत्व एवं विजय अभियानों के लिए जाना जाता है। राहुल सांकृत्यायन के वर्णन के अनुसार उसकी विजय पताका तिब्बत तक फैली थी। उसके वीरत्व के सम्मान में उसकी तलवार एवं हथियार कई वर्षों तक ‘दाबा’ के विहार में रखे गये थे। सन् 1662 ई0 में फतेशाह ने सिरमौर रियासत पर आक्रमण किया एवं पॉवटासाहिब ओर जौनसार- भावर क्षेत्र को गढ़राज्य में सम्मिलित कर लिया था। देशराज की पुस्तक ‘सिख इतिहास के अनुसार सिरमौर का राजा गढराजा की शक्ति से इतना भयभीत हो गया था कि उसने सिक्ख गुरू गोविन्द सिंह से मदद की गुहार लगाई।

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सम्भवतः फतेशाह के गुरू गोविन्द सिंह से अच्छी मित्रता थी फलतः उसने गुरूजी के कहने पर सिरमौर राज्य की मित्रता की याचना को स्वीकार कर लिया और उसकी उसके विजित क्षेत्रों को लौटाना स्वीकार कर लिया। यद्यपि कालान्तर में फतेहशाह और गुरू गोविन्द सिंह के सम्बन्ध कटु हो गये थे। सम्भवतः इसका कारण विलासपुर के शासक के पुत्र के साथ में फतेशाह की पुत्री का विवाह होना रहा होगा। विलासपुर के शासक की गुरूजी से शत्रुता थी फलतः भीमचन्द ने गढ़राज्य के फतेहशाह का गुरूजी से मित्रवत सम्बन्ध न रखने की चेतावनी दी हो और फतेशाह की पुत्री को त्याग देने की बात कही हो।

गुरू गाविन्द सिंह की आत्मकथा विचित्रनाटक में वर्णित है। कि पाँवटा से 6 मील की दूरी पर स्थित भैगणी नामक स्थल पर गढ़नरेश ओर सिक्ख केसरी के मध्य युद्ध हुआ था। हरिकृष्ण रतुड़ी के अनुसार इस युद्ध का अन्त शान्ति समझौते के रूप में हुआ था। जबकि विचित्र नाटक अनुसार फतेशाह को झुकना पड़ा। यद्यपि अपनी आत्मकथा में गुरूजी ने कही भी भीमचन्द का नाम उल्लेख नहीं किया है जिससे भैगणी युद्ध का कारण भीमचन्द तो नहीं लगता है।

अतः प्रतीत होता है कि गुरूजी फतेहशाह के काल में कुछ समय के लिए पाँवटा पधारे सम्भवतः यह उनकी निजी यात्रा रही हो अथवा सिरमौर नरेश मेदिनीप्रकाश के आग्रह पर वे यहाँ पधारे हों। पाँवटा विश्राम के दौरान गुरूजी शेरों का शिकार कर जब स्थानीय लोगों में प्रसिद्धि पाने लगे तो गढ़राज्य नरेश के लिए चिन्ता का विषय बनना स्वाभाविक था।

फलतः दोनो के मध्य शत्रुता पनपने लगी और इसका ही परिणाम दोनों के मध्य युद्ध था। फतेशाह ने सिरमौर राज्य को आंतकित ही नहीं किया बल्कि राज्य के कुछ हिस्से को अधिकृत भी कर लिया था। राजा फतेशाह की वीरता से कुर्माचल क्षेत्र भी प्रभावित हुआ था। भक्तदर्शन के अनुसार फतेहशाह ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया।

उत्तराखण्ड राज्य से संबन्धित सामान्य ज्ञान क्विज 1

मैमायर्स ऑफ देहरादून में वर्णन है कि फतेशाह ने सहारनपुर पर भी आक्रमण किया और विजित क्षेत्र के इौरा परगने में ‘फतेहपुर’ नामक नगर बसाया।अतः फतेहशाह पंवार / परमार वंश के वीर शासकों में से एक था। जिसकी वीरता की दुदंभी से आस-पास के राज्य आकांत थे। उसने गढ़राज्य की सीमाओं को विस्तृत किया।

फतेशाह केवल वीरता के लिए ही नहीं अपितु अपनी कलात्मक दृष्टि के लिए भी प्रसिद्ध था। माना जाता है कि चन्द्रगुत विक्रमादित्तय और मुगल सम्राट अकबर की भाँति फतेशाह का दरबार भी नवरत्नों से सुशोभित था। इन नवरत्नों में शामिल थे सुरेशानन्द बर्थवाल, खेतराम धस्माना, रूद्रीदत्त किमोठी, हरिदत्त नौटियाल, वासवानन्द बहुगुणा, शशिधर डगवाल, सहदेव चन्दोला, कीर्तिराम कनठौला, हरिदत्त थपलियाल ।

इस काल के कवियों, लेखकों ने फतेशाह की वीरता एवं विद्वता पर अनेक रचनाएँ लिखी है। जयशंकर द्वारा रचित ‘फतेहशाह कर्ण ग्रन्थ’ आज भी देवप्रयाग के पंडित चक्रधर शास्त्री की पुस्तकालय में रखा है। रतन कवि का हस्तलिखित ग्रन्थ ‘फतेहशाह’ शूरवीर सिंह के संग्रहालय में उपलब्ध है जिसका उन्होंने प्रकाशन भी करवाया है। तत्कालीन सुप्रसिद्ध विद्धान कविराज सुखदेव के ग्रन्थ ‘वृत विचार’ में भी फतेशाह का यशोगान है। हिन्दी जगत के कवि मतिराम की रचना ‘वृत कौमुदी में फतेहशाह की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है और उसकी तुलना छत्रपति शिवाजी से की है।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि फतेशाह ने अपनी योग्यता युद्धभूमि में ही नहीं बल्कि विद्धता के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। अतः फतेशाह में वीरता एवं कलात्मकता का एक अनूठा सांमजस्य था।

राजा फतेहशाह अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। नाथपंथ में उसकी अटूट श्रद्धा थी जिसका प्रमाण हमें 1668 ई0 के लिखे ताम्रपत्र से होता है जिसमें नाथपंथी संत बालकनाथ का वर्णन है जिसने हिमालयी क्षेत्र में प्रसिद्धि पाई।

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‘नाथपंथ’ के अनुयायी होने पर भी फतेहशाह धार्मिक रूप से सहिष्णु था। उसने सिक्खों के गुरूराम राय को अपने राज्य में आमंत्रित किया एवं देहरादून में गुरूद्वारे के निर्माण का न केवल स्वागत किया अपितु इसकी आय हेतु खुडबुड़ा, बाजपुर एवं चमासारी ग्राम दान में दिये। कालान्तर में फतेशाह के पौत्र प्रदीपशाह ने छायावाला, भजनवाला, पंडितवारी, तथा घाटावाला ग्राम गुरू रामराय जी को प्रदान किए। विलियम्स महोदय ने उपरोक्त वर्णन अपनी रचना में दिया है।

यद्यपि फतेशाह की मृत्यु की तिथि पर विद्वानो में मतैक्य नहीं है परन्तु शूरवीर सिंह के संग्रह में रखे ताम्रपत्र से 1715 ई० तक फतेहशाह के शासन करने का निश्चित प्रमाण मिलता है। दूसरा ताम्रपत्र 1716 ई0 का राजा प्रदीप शाह के काल का है। दोनों ताम्रपत्रों की तिथि के मध्य की 1 वर्ष 1 माह की अवधि पर मतभेद है।

भक्तदर्शन एवं वॉल्टन महोदय फतेहशाह के पश्चात् दिलीपशाह को गढ़नरेश मानते हैं जबकि मौलाराम के अनुसार उपेन्द्रशाह राजा फतेहशाह के उत्तराधिकारी थे। उनके द्वारा बनाया गया उपेन्द्रशाह का चित्र भी शूरवीर सिंह के संग्रहालय में उपलब्ध है। इन्हीं के संग्रह में उपलब्ध ‘बिन्दाकोर्ट का ताम्रपत्र भी इस बात की पुष्टि करता है कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते उपेन्द्रशाह ही फतेहशाह के बाद गद्दी पर बैठे।

अतः उपलब्ध साक्ष्यों से यही स्पष्ट होता है कि 1715 ई0 किसी माह में फतेहशाह की मृत्यु हुई और उपेन्द्रशाह गद्दी पर बैठे। उपेन्द्रशाह अधिक दिन तक राजपाठ का सुख नहीं भोग पाये और उनके बाद प्रदीपशाह गद्दी पर बैठे।

प्रदीपशाह –

प्रदीपशाह के राज्यारोहण की तिथि को लेकर भी इतिहासविद्धों के मध्य मतैक्य नहीं है। हरिकृष्ण रतुड़ी के अनुसार वे 33 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे। जबकि शिवप्रसाद डबराल के अनुसार राज्यारोहण के समय उसकी आयु 5 वर्ष थी। किन्तु शूरवीर सिंह के संग्रह में रखे ताम्रपत्र के आधार पर दो तथ्य सामने आते हैं| फतेहशाह व प्रदीपशाह के मध्य उपेन्द्रशाह गढ़नरेश रहा।

उत्तराखण्ड राज्य से संबन्धित सामान्य ज्ञान क्विज न॰ 4

प्रदीपशाह के राज्यारोहरण पर उनकी माता का संरक्षिका न होने का ज्ञान होता क्योंकि उनकी माता का नाम ताम्रपत्र में अंकित नहीं है।

डॉ0 डबराल के अनुसार प्रदीपशाह अल्पव्यस्क रहने तक मंत्रियों के सशक्त गुट ने राजकार्य संभाला जिनमें पूरनमल या पुरिया नैथाणी का नाम विशेष रूप से उल्लिखित है। डॉ0 डबराल तथा एंटकिन्सन महोदय ने चार अभिलेखों (सम्वत् 1782, 1791, 1802, 1812 क्रमशः) का वर्णन किया है जिनमें से कोई भी उपलब्ध नहीं है। प्रदीपशाह के काल का एक सिक्का लखनऊ संग्रहालय में रखा हैं जिसके ऊपर ‘गढ़वाल का राजा’ एवं नीचे प्रदीपशाह सन् 1717 से 1757 ई0 तक लिखा है।

प्रदीपशाह के काल में गढ़वाल तथा कुमाऊँ के मध्य मधुर सम्बन्ध थे। इसका साक्ष्य हमें कुमाऊँ पर रोहिल्ला आक्रमण के अवसर पर मिलता है। जब कुमाऊँ नरेश कल्याणचन्द्र की सहायता के लिए प्रदीपशाह ने अपनी सेनाएँ भेजी थी। इसके बाद भी जब गढ़वाल कुमाऊँ की सम्मिलित सेनाएँ रोहिल्लों को परास्त करने में असमर्थ रही तो कुमाऊँ नरेश ने रोहिल्लों से सन्धि करनी उचित समझी।

रोहिल्लों ने युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में तीन लाख रूपयों की माँग कल्याण चन्द से की। कल्याणचन्द्र से मित्रता के कारण यह राशि प्रदीपशाह ने भुगतान की। सम्भवतः इसी समय गढ़राज्य से भावर एवं दून घाटी रोहिल्ला सेनापति ने हस्तगत की थी जिनमें पुनः 1770 ई0 को दून घाटी गढ़राज्य ने हस्तगत कर ली।

विलियम्स के शब्दो–“प्रदीपशाह का शासनकाल शान्तिपूर्ण एवं ऐश्वर्यशाली था। दून की उपत्यका हरीभरी थी जहां तनिक भी श्रम करने पर कृषक लहलहाती फसल काटते थे।” सम्भवतः प्रदीपशाह ने 56 वर्ष शासन किया। बैकेट महोदय की सूची, पातीराम एवं एटकिन्सन के अनुसार सम्वत् 1829 में इनकी मृत्यु हुई अर्थात 1772 ई0 तक उन्होंने शासन किया। राहुल सांकृत्यायन ने भी दी गई तिथि की पुष्टि एक ताम्रपत्र से की है। यद्यपि हरिकृष्ण रतुड़ी इसे 1750-1780 ई0 के मध्य रखते हैं। अतः सर्वाधिक प्रमाणिक तिथि 1772 प्रतीत होती है।”

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ललित शाह –

प्रदीपशाह की मृत्यु के पश्चात् (29 गते मंगसीर, 1829) दिसम्बर 1772ईo में ललितशाह गढ़राज्य की गद्दी पर आसीन हुए। इनके शासन काल की मुख्य घटनाएँ इस प्रकार है –

ललितशाह के काल में सिक्खों ने दो आक्रमण किए 1775 0 एवं 1778 0 के दोनों आक्रमण में ललितशाह कुछ विशेष प्रतिरोध नहीं कर पाए फिर भी सिक्खों के आक्रमण का प्रभाव दून के आस-पास तक ही सीमित रहा।

सिक्खों के विरूद्ध ललितशाह की नाकामयाबी का कारण गढ़वाल एवं कुमाऊँ के मध्य तनावपूर्ण वातारण था। चन्द नरेश दीपचन्द के कार्यकाल में कुमाऊँ में गृहकलेश की स्थिति उत्पन्न हुई। चारों ओर अशान्ति द्वेष का वातावरण था। मोहन सिंह रौतेला ने दीपचन्द के जीवित रहते हुए भी 1717 0 में स्वयं को कुमाऊँ का शासक घोषित कर दिया। लेकिन मन्त्रियों ने मोहन सिंह को सहयोग नहीं किया एवं मंत्री हर्षदेव जोशी ने गढ़नरेश ललितशाह को कूर्माचल विजय के लिए आमंत्रित किया। ललितशाह स्वयं सेना के साथ गए और मोहन सिंह को पराजित किया। कुर्माचल विजय के पश्चात् उन्होंने अपने द्वितीय पुत्र प्रद्युम्नशाह को कुर्मांचल के शासन की बागडोर सौंपी। हर्षदेव जोशी को उसका प्रधानमंत्री नियुक्त किया। इसके पश्चात् ललितशाह वापस अपने राज्य लौट आए। यद्यपि मार्ग में ही ढुलड़ी नामक स्थल पर मलेरिया के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

ललितशाह के दो पुत्र जयकृतशाह और प्रद्युम्नशाह सौतेले भाई थे और दोनो के सम्बन्ध कटुतापूर्ण थे। सम्भवतः जयकृत पिता की मृत्यु के पश्चात गढनरेश बने। हरिकृष्ण रतूडी ओर बद्रीदत्त पाण्डे ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। बैकेट की सूची में जयकृत के शासनकाल की अवधि 1780-86 ई0, मुकन्दीलाल के अनसार 1780-85 ई0 दी गई जबकि यहाँ भी हरिकृष्ण रतुड़ी द्वारा गई तिथि मेल नहीं खाती है। राज्यारोहण के बाद भी दोनो भाईयों के मध्य कटुता कम नहीं।

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यहाँ तक जयकृत शाह ने प्रद्युम्न को कुर्माचल के शासन से अपदस्त करने के लिए मोहन सिंह रौतला को सहायता दी। प्रतिउत्तर में प्रद्युम्न ने देवलगढ़ एवं श्रीनगर पर आक्रमण किया। श्रीनगर में वह तीन वर्ष रहा तत्पश्चात् कुमाऊँ लोट गया। मौलाराम ने इस तथ्य की पुष्टि की है।

जयकृतशाह के काल में दरबारी गुटबन्दी मुख्य समस्या रही। इनमें मुख्यतः डोभाल व खण्डुरी थे जो राज्य के उच्च पदों पर आसीन थे। इनमें भी कृपाराम डोभाल की तानाशाही प्रवृत्ति ही इस तनावपूर्ण वातावरण के लिए अधिक जिम्मेदार थी। इस व्यक्ति की तानाशाही प्रवृत्ति इतनी बढ़ चुकी थी कि तनिक भी विरोध करने वाले को “मौत” मिलती थी। इस प्रकार के दूषित वातावरण से निकलने के लिए “नेगी’ जाति के सदस्यों ने देहरादून से श्रीनगर तक के राज्यपाल ”घमण्ड सिंह मियाँ को आमंत्रित किया गया। घमण्ड सिंह ने भरे दरबार में कृपाराम डोभाल की गर्दन काट दी और श्रीनगर का राजकोष लूटकर गढ सैनिकों का वेतन भुगतान कर दिया लेकिन इससे गढ़राज्य में आतंक का माहौल उत्पन्न हो गया।

मौलाराम का कथन है कि निराश जयकृतशाह ने उन्हें मंत्रणा के लिए बुलाया। तत्पश्चात् सिरमौर शासक को मदद के लिए पत्र लिखवाया। सिरमौर नरेश जगत प्रकाश अपनी सेना सहित गढ़नरेश की सहायता के लिए बढ़ा। विजयराम नेगी ने उसका मार्ग रोकने का प्रयास किया किन्तु वह जगतप्रकाश के वीरत्व के आगे ठहर नहीं पाया।

कपरौली नामक स्थल पर विजयराम नेगी वीरगति को प्राप्त हुआ। जगत प्रकाश की सेना का अब मुकाबला घमण्ड सिंह की सेनाओं से हुआ। घमण्ड सिंह भी लड़ते हुए मारे गये। तत्पश्चात् सिरमौर नरेश जयकृतशाह के दरबार पहुँचे। गढ़राज्य में शांति एवंव्यवस्था बनाकर जगत प्रकाश अपने राज्य लौट गए।

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लेकिन कहते हैं कि भाग्य भी भाग्यशाली का ही साथ देता है और जयकृत के भाग्य में सुख नहीं था, सिरमौर नरेश के लौटने के बाद जब वह देवलगढ़ अपनी कुलदेवी की पूजा के लिए गया तो प्रद्युम्न शाह ने आक्रमण कर दिया। हताश जयकृत देवप्रयाग के रधुनाथ जी के मन्दिर चले गए, जहाँ उनकी मृत्यु हुई। उनकी चार रानियां भी उनके साथ सती हुई।

प्रद्युम्नशाह –

जयकृतशाह के शासनकाल के दौरान प्रद्युम्नशाह ने गढ़राज्य पर आक्रमण किया और तीन वर्ष श्रीनगर में रहकर शासन को संभालने का कार्य किया किन्तु तत्कालीन आंतरिक कलह के कारण उसने वापस कुर्माचल जाने का निर्णय किया। किन्तु जयकृतशाह की मृत्यु के पश्चात् प्रद्युम्न अपने अनुज पराक्रमशाह के साथ गढ़वाल आया। डॉ0 डबराल के अनुसार हर्षदेव जोशी भी उनके साथ था।

बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार प्रद्युम्नशाह ने स्वयं को गढ़वाल एवं कुमाऊँ का शासक घोषित किया और दोनों राज्यों की प्रजा ने इसका स्वागत किया। परन्तु प्रद्युम्न का अनुज पराक्रम शाह इससे निराश हुआ क्योंकि उसे आशा थी कि प्रद्युम्न शाह उसे गढ़राज्य की गद्दी पर आसीन कर वापस कुर्माचल चले जायेगें। प्रद्युम्नशाह ने पराकमशाह की बजाय हर्षदेव जोशी को अपना प्रतिनिधि बनाकर कुमाऊँ की बागडोर सौप दी तो पराक्रमशाह अत्यधिक क्षुब्ध हुआ। अब पराक्रम शाह ने मोहनचन्द्र रौतेला का सर्मथन करना शुरू कर दिया।

मोहनचन्द ने अपने भाई लालसिंह की सहायता से 1786 पाली गाँव के युद्ध में हर्षदेव को पराजित कर कुमाऊँ पर अधिकार कर लिया। हर्षदेव जोशी भागकर श्रीनगर पहुँचे।

कुमाऊँ में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। मोहनचन्द भी अधिक समय तक सत्ता नहीं सभांल सका क्योंकि हर्षदेव जोशी 1788 ई0 में एक बड़ी सेना के साथ वापस आया उसने मोहनचन्द और लालसिंह दोनो को परास्त कर कैद कर लिया। मोहनचन्द की कुछ समय पश्चात् हत्या कर दी गई। सम्पूर्ण कुमाऊँ पर अधिकार करने के बाद हर्षदेव ने प्रद्युम्न को कुमाऊँ आमंत्रित किया।

कुमाऊँ के चंद राज्य वंश से संबन्धित महत्वपूर्ण प्रश्न

प्रद्युम्नशाह ने आमन्त्रण स्वीकार नहीं किया। पराकमशाह ने भी प्रद्युम्नशाह को कुमाऊँ न लौटने की सलाह दी। अतः हर्षदेव सर्वेसर्वा बन बैठा। उसने शिवसिंह रौतेला नाम के व्यक्ति को ‘शिवचन्द’ नाम से गद्दी पर बैठा दिया जो कि हर्षदेव के हाथों की कठपुतली था।

इस बीच लाल सिंह ने रामपुर के नवाब फैजउल्लाखाँ की सहायता से कुमाऊँ पर आक्रमण किया। हर्षदेव पराजित हो गढ़राज्य की ओर भागा। लालसिंह उसका पीछा करता हुआ उल्कागढ़ पहुँचा जहाँ हर्षदेव ने उसे पराजित कर कोसी नदी तक खदेड़ दिया था।

अब पराक्रम शाह ने अपनी सेनाओं के साथ लालसिंह की सेना की कमान संभाली। हर्षदेव परास्त हो गढ़वाल भाग गया जबकि शिवचन्द का इसके बाद कुछ पता नहीं चला। इसके पश्चात् पराक्रमशाह ने अल्मोड़ा पहुँचकर मोहनचन्द के पुत्र महेन्द्र सिंह को कुमाऊँ की गद्दी पर आसीन किया। पराकमशाह ने कुछ विद्रोहियों को समाप्त किया एवं इसके पश्चात् नजराना लेकर लौट गया।

हर्षदेव जोशी को गढराज्य में ‘पैडलस्यु’ की जागीर प्रद्युम्नशाह ने प्रदान की। 1786 ई0 में गढ़नरेश बनने के पश्चात् प्रद्युम्नशाह के भाग्य ने पलटा खाया और वह निरन्तर षडयंत्रों, समस्याओं में ही घिरा रहा। उसका अनुज पराकमशाह इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार था।

मौलाराम’ ने अपनी रचनाओं में पराक्रमशाह के चरित्र का वर्णन किया है। वह विलासी, दुराचारी एवं चरित्रहीन राजकुमार था। उसने मौलाराम की गणिका और जागीर दोनो छीन ली थी। इसने ही प्रद्युम्न के वफादार अधीनस्थों खण्डुरी भाई, रामा एवं धारणा की हत्या करवाई। सम्भवतः प्रद्युम्न को बन्दी बना लिया जिसने कालान्तर में प्रद्युम्न के उत्तराधिकारी सुदर्शनशाह एवं पराकमशाह के मध्य भीषण युद्ध को जन्म दिया।

उत्तराखण्ड के प्रमुख व्यक्ति और उनके उपनाम

गढराज्य में गृहयुद्व का वातावरण उत्पन्न हुआ। इस राजनीतिक अस्थिरता की सूचना पाकर नेपाल नरेश ने गढ़राज्य में हस्तक्षेप किया। गोरखे इससे पूर्व 1791 ई0 में गढ़वाल पर आक्रमण कर चुके थे परन्तु नेपाल पर चीनी आक्रमण के कारण वे वापस लौट गए थे। यद्यपि इससे पूर्व गोरखे 1790 ई0 में कुमाऊँ का राज्य हस्तगत कर चुके थे।

गढ़राज्य की निरन्तर गिरती साख के कारण गोरखों को पुनः आक्रमण का सुअवसर मिला। 1803 ई0 में उन्होंने गढ़राज्य पर आक्रमण किया। प्रद्युम्नशाह श्रीनगर छोड़ भागे। ‘बाराहाट (उत्तरकाशी) में प्रद्युम्नशाह दुबारा पराजित हुए। इसके पश्चात ‘चमुआ’ (चम्बा) नामक स्थान पर पुनः गढसेना परास्त हुई।

गढनरेश एवं गोरखों के मध्य अंतिम और निर्णायक युद्ध खुड़बुड़ा (देहरादून) नाम स्थल पर हुआ। इसमें प्रद्युम्नशाह वीरगति को प्राप्त हुए। गोरखों ने उनकी अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ हरिद्वार में की। इस प्रकार गढ़राज्य को पंवार/ परमार वंश से गोरखों ने सता हस्तगत कर अपने हाथों में ले ली।

All Information Source From – उत्तराखण्ड का इतिहास, लेखक – डॉ. एम. एस. गुसांई और अनुराधा गुसांई Published by – onlinegatha